शनिवार, 4 मार्च 2017

सखी रे जो मैं जानती

सखी रे जो मैं जानती....
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लगभग एक सप्ताह पहले मेरे विद्यालय की एक पुरानी दीवाल में एक नाग देवता दिखे। फिर क्या था, सभी शिक्षक, रसोइया मजदूर और बच्चे एक स्वर में बोल उठे- यह दुश्मन है, इसे जल्द से जल्द मार दिया जाय। वही मनुष्य की राक्षसी आदत! कमजोर के लिए काल होने की प्रकृति। पर जहां सर्वेश बाबू हों, वहां किसी जीव को मार देना तनिक कठिन है। सो किसी की हिम्मत नही हुई कि लाठी चलाये। नाग देवता को यूँ ही छोड़ दिया गया।
   पर नाग देव अगले दिन भी दिखाई दे गए। सर्वेश बाबू की कृपा से उसदिन भी उनके प्राण बचे, पर नाग देव उसी समय उसके अगले दिन भी उपस्थित हो गए। नाग देव तो शिक्षकों की तरह रोज उपस्थित होने लगे थे। इस तरह जब नाग देव पांच दिन लगातार उपस्थित हो गए तो बच्चों में भय फ़ैल गया।अब सर्वेश बाबू भी उनकी रक्षा कर पाने में असमर्थ होने लगे, पर यह तो तय था कि हत्या नही होगी। सो संपेरे को बुलाया गया और नाग देवता को कैद करने की योजना बनी। जब संपेरे ने देवता को उनकी कुटिया से निकाला तो ज्ञात हुआ कि देव एकल नही हैं, देवी भी साथ हैं। फिर सारा किस्सा साफ हो गया, कि नाग देवता नित्य ही प्रेयसी से अभिसार के लिए आते थे। संपेरे महोदय तो प्रेमी युगल को दो सौ रुपयों के साथ ले गए, पर सर्वेश बाबू सोचने लगे, काश कि नाग देवता ने प्रेम न किया होता। अगर प्रेयसी का प्रेम न होता तो पांच दिन तक रक्षा करने के बाद भी छठे दिन महोदय मृत्यु के मुख में न आते। आखिर नागराज को प्रेम ले ही डूबा।
सोचता हूँ, यह प्रेम कभी सुख नही देता। वस्तुतः किसी पराये के लिए दुःख भोगने का नाम ही प्रेम है। यदि ऐसा न होता, तो सूरदास जैसा महान भक्त कवि अपने आराध्य का प्रेम लिखते समय सिर्फ राधिका के अश्रु नही लिखता। सृष्टि की सबसे चर्चित, पूजित और पवित्र प्रेम कथा के गायक सूर यह तो कभी नही कहते, कि
हरि श्रमजल भीज्यो उर अंचल,
तिहिं लाचन न धुवावत सारी...
फिर आगे बढ़ कर यह नही गाते, कि
अधमुख रहति अनत नहीं चितवति,
ज्यों गथ हारे थकित जुआरी...
पर शायद यह "गथ" हारना ही प्रेम करना होता है।   प्रेम ही एक ऐसा जुआ है जिसका खिलाडी सबकुछ हारने के लिए दाव लगाता है। यदि हारे नहीं तो फिर प्रेम कहाँ किया। भले हर प्रेमी पीड़ा के क्षणों में कहता फिरे कि " सखी रे जो मैं जानती प्रीत किये दुःख होय..." पर यह सिर्फ कहने के लिए ही कहा जाता है। अगर दुःख सहने का साहस न होता तो प्रेम क्यों करता कोई? जीत जाने पर प्रेम मर जाता है,पर हार जाने पर प्रेम अमर हो जाता है। बच्चन कहते हैं-
पा जाता तो हाय न इतनी
प्यारी लगती मधुशाला।
प्रेम में जीत जाने वालों को तो तुलसी बाबा की तरह कभी न कभी सुनना ही पड़ता है, कि
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहाँ कहौं हौं नाथ।
पर प्रेम में हारने वालों को इसका कोई भय नहीं।कृष्ण के प्रेम में जीत कर रुक्मिणी हार जाती हैं, और हार कर राधिका जीत जाती हैं। तनिक सोचिये तो, वृंदावन की फुलवारियों को अपनी आंसुओं से सींचती राधिका के पास ऐसा क्या था जिसने रुक्मिणी की सेवा को हरा दिया? सिर्फ अश्रु ही न? प्रेम अश्रुओं के तराजू पर ही तौला जाता है, जब तक अँखियन से लोर की नदी न बहे तब तक प्रेम प्रमाणित नही होता। प्रेम में लोर सबसे आवश्यक तत्व है। घनानंद कहते हैं-
घन आनंद नीर समीर बिना, बुझिबे को न और उपाय लहौं।
हृदय की आग बुझाने के लिए अश्रुओं से अधिक कारगर और कुछ नहीं। प्रेम हृदय की आग ही तो है, यदि अश्रुओं से इसे बुझा लिया तो जी लिए अन्यथा जला कर राख कर देगा। मेरे विद्यालय वाले नाग देवता को रोने का मौका नही मिला तो कैद में जलना ही पड़ा न।
खैर! मैंने संपेरे से कहा था- भाई, इन दोनों को एक ही डब्बे में रखना। पता नहीं उसने क्या किया होगा।

........लेखक.........
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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