गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

जातिवाले

उनका सबकुछ पवित्र है। जाति में बाजे बजाकर शादी हुई। पत्नी ने सात जन्मों में किसी दूसरे पुरुष को नहीं देखा। उन्होंने अपने लड़के-लड़की की शादी मंडप में की। लड़की के लिए दहेज दिया और लड़के के लिए लिया। एक लड़की खुद पसंद की और लड़के की पत्नी बना दिया।

वे फुरसत में रहते हैं। दूसरों की कलंक चर्चा में समय काटते हैं। जो समय फिर भी बच जाता है उसमें मूंछ के सफेद बाल उखाड़ते हैं और बर्तन बेचने वाली की राह देखते हैं।

अभी उस दिन दांत खोदते आए और कलंक चर्चा का चूर्ण फांकना शुरू कर दिया, ‘आपने सुना, अमुक साहब की लड़की अमुक लड़के के साथ भाग गई और दोनों ने शादी कर ली। कैसा बुरा जमाना आ गया है।’

मैं जानता हूं कि वे बुरा जमाना आने से दुखी नहीं, सुखी हैं। जितना बुरा जमाना आएगा, वे उतने ही सुखी होंगे। तब वे यह महसूस करेंगे कि इतने बुरे जमाने में भी हम अच्छे हैं।

वे कहने लगे, ‘और जानते हैं लड़का-लड़की अलग जाति के हैं?’ मैंने पूछा, ‘मनुष्य जाति के तो हैं ना?’ वे बोले, ‘हां, उसमें क्या शक है?’

ये घटनाएं बढ़ रही हैं। दो तरह की चिट्ठियां पेटेंट हो गई हैं। उनके मजमून ये हैं। जिन्हें भागकर शादी करना है वे और जिन्हें नहीं करना है, वे भी इनका उपयोग कर सकते हैं।

                           चिट्ठी नं. 1

पूज्य पिताजी,
मैंने यहां रमेश से शादी कर ली है। हम अच्छे हैं। आप चिंता मत करिए। आशा है आप और अम्मा मुझे माफ कर देंगे।
                              आपकी बेटी
                                      सुनीता।
******

                              चिट्ठी नं. 2

प्रिय रमेश,
मैं अपने माता-पिता के विरुद्ध नहीं जा सकती। तुम मुझे माफ कर देना। तुम जरूर शादी कर लेना और सुखी रहना। तुम दुखी रहोगे तो मुझे जीवन में सुख नहीं मिलेगा। ह्रदय से तो मैं तुम्हारी हूं। (4-5 साल बाद आओगे तो पप्पू से कहूंगी – बेटा, मामाजी को नमस्ते करो।)
                                  तुम्हारी
                                      विनीता।

इसके बाद एक मजेदार क्रम चालू होता है। मां-बाप कहते हैं, वह हमारे लिए मर चुकी है। अब हम उसका मुंह नहीं देखेंगे।

फिर कुछ महीने बाद मैं उनके यहां जाता हूं तो वही लड़की चाय लेकर आती है। मैं उनसे पूछता हूं, ‘यह तो आपके लिए मर चुकी थी।

‘वे जवाब देेते हैं, ‘आखिर लड़की ही तो है।’ और मैं सोचता रह जाता हूं कि जो आखिर में लड़की है वह शुरू में लड़की क्यों नहीं थी?

एक लड़की दूसरी जाति के लड़के से शादी करना चाहती थी। लड़का अच्छा कमाता था लेकिन लड़की के माता-पिता ने शादी अपनी ही जाति के लड़के से कर दी जो कम तो कमाता ही था, पत्नी को पीटता भी था।

एक दिन मैंने उन सज्जन से कहा, ‘सुना है वह लड़की को पीटता है।’ वे जवाब देते भी तो क्या देते, सिवा इसके कि संतोष है कि जातिवाले से पिट रही है।

बुधवार, 28 दिसंबर 2016

मेहा ऊजली : सोरठों में व्यक्त अव्यक्त प्रेम गाथा

"मेहा-ऊजली : सोरठों में व्यक्त अव्यक्त प्रेम गाथा"

सैणल-बीझा की तरह राजस्थान गुजरात की एक अल्पप्रचलित लोककथा है,
मेहा-ऊजली की.
देस वही, एक की जाति वही और दोनों की नियति भी कुछ-कुछ वही सी.

पुराने जमाने में कोई रियासत थी,
हालामण, जिसकी राजधानी थी-
धूमली नगरी.
यह हालामण संभवतः पोरबंदर के पास था.
इस नगरी के राजा थे-भानु जेठवा.
उनका एक पुत्र था,
नाम था- मेहा जेठवा.
नाम के अनुरूप वह मेघ सा गंभीर और उदार था,
फिर परंपरागत उपनाम की तरह वह रूप-गुण में भी ज्येष्ठ और वरिष्ठ ठहरता था.

दूर पांचाल देश के पर्वतीय प्रदेश में कोई चारण रहता था,
नाम था- अमरा.
उसकी एक सुंदर युवा कन्या थी-
ऊजली.
जैसा उज्ज्वल नाम, वैसा ही उज्ज्वल रूप, शील, गुण.
संयोग ने आगे उसके लिए कुछ अलग सोच रखा था,
तभी वह तत्समय अल्पायु में विवाह की संस्कृति में भी
बीस वर्ष की आयु तक कुमारी ही थी.
क्या जाने वर्तमान की निर्धनता ने ही परिणय में बाधा डाली थी,
या फिर भविष्य की घटने वाली नियति ने.

दुर्योगवश एक बार पांचाल में दुर्भिक्ष पड़ा और
अमरा को मेहा के राज्य के पास हालार प्रांत में शरण लेनी पड़ी.
यह हालार संभवतः द्वारका के पास था.

राजकुमार मेहा कभी आखेट खेलते हुए उसी गाँव के पास पहुँच गया.
मान्यता है कि किसी यति ने किसी कृष्णमृग के शृंग में कुछ ऐसा तिलिस्मी टोटका या कागज बाँध दिया था कि
जहाँ मृग जाता, वहाँ वर्षा न होती.
मेहा ने वह जंतर जैसे ही मुक्त किया,
वर्षा प्रारम्भ हो गई.

राजकुमार राजधानी लौट रहा था,
पर रात हो चुकी थी.
रास्ता भटक कर वह थक चुका था,
या फिर कहीं आहत भी हो चुका था।
पौष माह था,
राजकुमार भी ठंढ से घोड़े पर बैठे-बैठे बेहोश हो गया.

जाने किस संयोग से घोड़ा स्वयं ही राजकुमार को
अमरा-ऊजली के द्वार पर ले आया.
कहते हैं,
घर में जलते दीप को देख चला आया.
प्रेम अपनी लौ कहाँ कैसे जला दिखला लेता है।

घोड़े की हिनहिनाहट और टाप सुनकर पिता-पुत्री ने द्वार खोला,
रात भर सेवा शुश्रूषा, आवश्यक परिचर्या की.
प्रात: जब राजकुमार जगा,
तो सब जानकर विस्मित भी हुआ, अभिभूत भी, अनुगृहीत भी.
उसके भावों के साथ ऊजली की भी वही दशा हो गई.

ऊजली मेहा पर मुग्ध हो गई,
पर मेहा ने जाना कि
प्रेम की वांछनीय परिणति नहीं है।

दोनों में स्तर का अंतर था,
पर उससे बड़ा अंतर था- जाति का.
और जाति में भी निहित संस्कृति का.
जब बात राजा को पता चली,
बोले-
“चारण हमारे लिए देवीपुत्र हैं, सम्मान्य.
राजपूत लड़के का चारण कन्या के साथ बहन का रिश्ता होता है.
तुम राजा के पुत्र हो सकते हो,
पर संस्कृति का उल्लंघन नहीं कर सकते.”

जीवन में प्रेम का आगमन ही चिरवियोग की दशा-दिशा लिए आये,
यह संभवतः सबसे दुर्भाग्य भरी नियति होती है,
क्योंकि वह प्रेम का उतना भी सुखद पल कभी नहीं पा पाती,
जो दु:खांत की त्रासद नियति लिए आते हैं।

बात पूरी नहीं हुई,
यह बात राजकुमार को सालती रही.
कई बार सोचा,
काश वह बस मेहा होता,
राजकुमार नहीं,
राजपुत्र नहीं,
तो शायद नियति कुछ और होती.
राज और समाज की मर्यादा का वह संरक्षक और ध्वजवाहक जो माना जाता था।
वह राज बदल भी ले, छोड़ भी दे,
तो जाति न बदली जा सकती थी, न ही छोड़ी.

मेहा ऊजली को रथ भेजकर बुलाने का वचन देकर धूमलीनगरी लौट गया था.
लंबी प्रतीक्षा के बाद भी जब मेहा ऊजली की सुध नहीं ले सका,
तो ऊजली ने उसे कई संदेशे भेजे.
कोई उत्तर न आने पर वह उससे मिलने धूमलीनगरी पहुँची,
प्रहरियों से अनुनय कर मिली,
फिर वहाँ जब वह सब तथ्यों से विदित हुई,
तब जोगन बन गई,
मीरा की सी,
पीड़ा के गीत गाती.

ऊजली चारण परिवार की सुकन्या थी,
कविहृदय, मधुर शब्द लिए.
वह कविता रचती, गीत गाती,
स्वयं ही सुनती, सुनाती, गुनगुनाती,
हृदय के उद्गार में हृदय का भार कम कर लेती.
पर मेहा तो क्षत्रिय था,
कलम नहीं, तलवार की भाषा में ही सोच सकता था।

पर हृदय तो सबका मानवीय ही होता है,
अपने कोमल पक्ष में जाति, धर्म से परे,
बस सहज संवेदनशील.
मेहा मन ही मन घुटता रहा,
ऊजली की स्थिति के लिए, मन:स्थिति के लिए.
कुछ दिनों बाद मेहा की असामयिक मृत्यु हो गई.

और ऊजली ?
उसने पूरा जीवन विरह में बिताया,
अपने व मेहा के मध्य रहे अव्यक्त प्रेम के सोरठे रचते हुए.

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कहानी का एक दु:खांत रूपांतर है कि
प्रेम के सोरठे रचती ऊजली जब मेहा की मृत्यु की खबर पाती है,
स्वयं भी किसी नदी या जलाशय में डूबकर जान दे देती है।

राजस्थान गुजरात की जनसामान्य में प्रसिद्ध हुई लोकगाथाओं में इस गाथा में गहराई के साथ सच्चाई का भी पुट है।
यहाँ यह गाथा "मेहा-ऊजली" की बजाय "जेठवा-ऊजली" के नाम से अधिक उद्धृत होती है,
क्योंकि ऊजली ने अपने सोरठों में मेहा को जेठवा कहकर ही संबोधित किया है.

कहानी करीब ११ वीं-१२ वीं शताब्दी की मानी जाती है।
कितनी सीमा तक ऐतिहासिक है, पता नहीं.
उजली के सोरठे आज भी बहुत कुछ विद्यमान हैं,
प्रेम की पीड़ा लिए.
इन सोरठों को राजस्थान में मरसिया और पीछोले भी कहा जाता है।
सोरठे ऐसे दोहे हैं, जिनमें तुकांत भाग को तोड़कर बीच में ला दिया जाता है। शायद टूटी प्रेम कहानियों के लिए ये बेहतर रूपक भी हों.
ऊजली ने अपने हर सोरठे के अंतिम पद के रूप में जेठवा शब्द ही रखा है.

ऊजली के रचे सोरठों में से एक दृष्टांत के रूप में-
जेठ घड़ी न जाय, (म्हारो) जमारो कोंकर जावसी.
(मों) बिलखतड़ी वीहाय, (तूं) जोगण करग्यो जेठवा.
अर्थात्
जिसके बिना एक घड़ी भी नहीं बीतती, उसी के बिना मेरा जीवन कैसे बीतेगा? मुझ बिलखती हुई को छोड़कर हे जेठवा तू मुझे सदा के लिए जोगन बना गया.

किसी भी लोक प्रेमगाथा में नायिका ने स्वयं अपनी वेदना साहित्यिक रूप में व्यक्त की हो,
यह शायद कहीं और नहीं है।
ऊजली चारण साहित्य की पहली कवयित्री भी हैं,
राजस्थान व गुजरात में इनका काव्य "जेठवा री बात" के नाम से प्रचलित है
राजस्थानी भाषा के महान लोककथाविद् विजयदान देथा ने जेठवा-ऊजली की कथा को स्त्री की अस्मिता और जातीय विमर्श की बहुत पुरानी कथाओं में से एक महत्वपूर्ण कथा के तौर पर चुना है.
साभार-कॉपी

लोककथा 1

गाँव में एक काजी था | बहुत ही कंजुस व्यक्ति था | गाँव वाले उसके कंजुसी से भलीभाँति परिचित थे |

काजी के जूते बहुत ही पुराने हो चुके थे | अब मोची ने भी और सिलाई करने से या कील लगाने से मना कर दिया था। सारे गाँव वाले उन जूतों को पहचानते थे।

एक बार काजी स्नान करने हमाम गए। स्नान करके बाहर आये तो निश्चित स्थान पर उन्हें अपनी जूते नहीं दिखाई दिए। इधर उधर देखने पर एक जगह नये जूते दिखाई दिए। काजी ने सोचा कोई गलती से उनके जूते पहनकर गया होगा, इसलिए वे दूसरे जूते पहनकर चल दिये।

वास्तव में उस दिन गाँव के नये न्यायाधीश स्नान करने आये तो उनके सेवकों ने सामने की जगह साफ किया। उसमें काजी के जूते एक कोने में हो गए। न्यायाधीश स्नान करके आये तो सेवकों को उनके जूते नहीं मिले। सब लोग चले गए थे, लेकिन कोने में एक जूते पड़े थे, जिसको सेवकों ने तुरन्त पहचान लिया कि यह तो काजी के जूते है।

तुरन्त काजी को बुलाया गया और दंड दिया गया। अब काजी ने सोचा इन जूतों को छोड़ ही देना चाहिए।

  शुक्रवार को जान बुझकर नमाज के बाद मस्जिद के बाहर जूते को छोड़ दिए। सब लोग के जाने के बाद मौलवी को ध्यान में आया कि किसी के जूते छुट गए हैं। पास जाकर देखा तो तुरन्त जान गया कि ये तो काजी के जूते हैं। उसे तुरन्त काजी के पास भेज दिये।

दूसरे दिन काजी ने जूतों को नदी में छोड़ दिया | वे जूते मछलीमारों को मछली के साथ जाल में फँसे मिले। कीलों के कारण जाल फट गया। मछलीमारों ने जूतों को पहिचान लिया कि यह तो काजी के जूते हैं। गुस्से में उसे लेकर काजी के घर के पास आकर खुली खिड़की से काजी के घर में फेंक दिये। काजी आराम से घर में बैठा था, जूते उसके सर से टकराये और काजी को चोट लग गई।

काजी सोच में डूब गये। अपने घर के पीछे गड्ढे में गाड़ने का प्रयास किया, तो लोगों को लगा कि काजी को खजाना प्राप्त हुआ है, इसलिए सब लोक इकट्ठा हुए। काजी को सबको चाय पिलानी पड़ी।

आखिरी बार उसने रात में गाँव से बाहर जाकर नदी में जूते को फेंक दिया। दूसरे दिन सुबह चैन से बैठा ही था कि पूरे गाँव में हल्ला होने लगा। सभी के घर में नल से पानी नहीं आ रहा था। जाँच करने पर पाया गया कि पम्प हाउस का पाईप चोक कर गया है। सफाई करने पर वही काजी का सर्वपरिचित जूता पाईप में फँसा पाया गया। गाँव वाले दंड लेकर जूते फिर वापस कर दिये।

 

सामा चकेवा एक विस्मृत होती मासुमियत का आख्यान

आज के अखबार 'तरुणमित्र' दैनिक में बिहार की मिथिला संस्कृति के एक प्रतीक पर्व 'सामा चकेवा' की पृष्ठभूमि, इतिहास और वर्तमान पर मेरा आलेख -'सामा चकेवा-एक विस्मृत होती मासूमियत का आख्यान !'

हमारे देश में शास्त्रीय पर्वों और उत्सवों के अतिरिक्त रंग-विरंगे लोक पर्वों की लंबी श्रृंखला है। लोक आस्था के कुछ सबसे खूबसूरत त्योहारों में बिहार के मिथिला क्षेत्र में हर साल मनाए जाने वाले सामा चकेवा की गिनती होती है। भाई-बहन के कोमल और प्रगाढ़ रिश्ते को बेहद मासूम अभिव्यक्ति देने वाला यह लोकपर्व समृद्ध मिथिला संस्कृति की पहचान रही है। सामा चकेवा का यह आठ दिवसीय आयोजन छठ के पारण के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी से शुरू होता है और कार्तिक पूर्णिमा के दिन खत्म होता है। इसकी पृष्ठभूमि में कोई पौराणिक कथा नहीं, सदियों से मौखिक परंपरा से चली आ रही एक लोककथा है। कथा यह है कि श्यामा या सामा कृष्ण की पुत्री थी। साम्ब जिसे मैथिलि में सतभइयां या चकेवा के नाम से जाना जाता है, कृष्ण का पुत्र और श्यामा का भाई था। दोनों भाई-बहनों में बचपन से असीम स्नेह था। सामा प्रकृति प्रेमी थी जिसका ज्यादा समय पक्षियों, वृक्षों और फूल-पत्तों के बीच ही व्यतीत होता था। वह अपनी दासी डिहुली के साथ वृंदावन जाकर ऋषियों के बीच खेला करती थी। कृष्ण के एक मंत्री चुरक ने जिसे कालांतर में चुगला नाम से जाना गया सामा के खिलाफ कृष्ण के कान भरने शुरू कर दिए। उसने सामा पर वृन्दावन के एक तपस्वी के साथ अवैध संबंध का आरोप लगाया। उसकी बातों में आकर कृष्ण ने आक्रोश में अपनी पुत्री को पक्षी बन जाने का श्राप दे दिया | सामा मनुष्य से पक्षी बनी और वृंदावन के वन-उपवन में रहने लगी। उसे इस रूप में देख वहां के साधु-संत भी पक्षी बन गए। जब सामा के भाई चकेवा को इस प्रकरण की जानकारी हुई तो उसने कृष्ण को समझाने की भरसक कोशिश की। कृष्ण नहीं माने तो वह तपस्या पर बैठ गया। अपनी कठिन तपस्या के बल पर अंततः उसने कृष्ण को मनाने में सफलता पाई। प्रसन्न होकर कृष्ण ने वचन दिया कि सामा हर साल कार्तिक के महीने में आठ दिनों के लिए उसके पास आएगी और कार्तिक की पूर्णिमा को पुनः लौट जायेगी। कार्तिक में सामा और चकेवा का मिलन हुआ। उसी दिन के याद में आज भी सामा चकेवा का त्यौहार मनाया जाता है।

इस त्यौहार में सामा और चकेवा की जोड़ी के साथ चुगला, वृन्दावन, बटगमनी, वृक्षों, पक्षियों आदि की मिट्टी की छोटी-छोटी मूर्तियां बनायी जाती है। बांस की रंग-विरंगी टोकरियों में इन मूर्तियों को सजाकर उनकी अर्चना की जाती है। संध्या के समय गांव या नगर की युवा महिलाओं की टोली मैथिली लोकगीत गाती हुईं अपने घरों से बाहर निकलती हैं | सामा खेलते समय मैथिली लोक गीतों के साथ समां बंध जाता हैं। गीतों में आपसी नोकझोंक, हंसी-मज़ाक और ननद-भौजाई की चुहलबाजियां भी शामिल होती हैं। अंत में चुगलखोर चुगला का मुंह जलाने के बाद सभी महिलायें गाती-गुनगुनाती घर लौट जाती हैं | यह सिलसिला पूरे आठ दिनों तक चलता रहता है। कार्तिक पूर्णिमा के अंतिम दिन बहने अपने भाइयों के साथ खेतों में जाती हैं। चूड़ा, दही, गुड़ और मिठाई से मुंह जूठा कराने के बाद वे मूर्तियों को भाईयों के घुटने से तुड़वा देती हैं। उसके बाद अपने-अपने भाईयों की लम्बी उम्र की कामना के साथ वे सामा चकेवा का विसर्जन करती हैं। जाते-जाते चुगला की मूंछ में आग लगा दी जाती है। भाईयों को मिठाई खिलाकर और उनकी लंबी उम्र की प्रार्थनाएं करने के बाद अगले वर्ष फिर सामा चकेवा के आने की कामना के साथ इस आयोजन का समापन होता है।  

इस आठ दिवसीय त्यौहार का एक प्राकृतिक और पर्यावरणीय सच भी है। इस आयोजन का एक बड़ा उद्धेश्य मिथिला क्षेत्र में आने वाले प्रवासी पक्षियों को सुरक्षा और सम्मान देना भी है। बरसात के बाद कार्तिक के महीने से सर्दियों की शुरुआत होती है। ताल-तलैया से भरे मिथिला के मैदानी इलाकों में दूर-दराज़ से दुर्लभ प्रजाति के रंग-बिरंगे पक्षियों का आगमन शुरू हो जाता है। ये पक्षी हिमालय या सुदूर उत्तर के देशों हिमच्छादित इलाकों से विस्थापित होकर यहां इसलिए आते हैं क्योंकि यहां सर्दी कम पड़ती है और पानी की सुविधाएं यहां भरी पड़ी हैं। प्रवासी पक्षियों के आगमन की शुरुआत सामा चकेवा नामक पक्षियों के जोड़े के आने से होती है। इन पक्षियों को शिकारियों के हाथों से बचाने और मनुष्य तथा पक्षियों के सनातन रिश्ते को मजबूती और स्थायित्व देने के लिए हमारे पूर्वजों ने सामा और चकेवा के धार्मिक और मिथकीय प्रतीक गढ़े। सामा और चकेवा पक्षियों की कल्पना कृष्ण की संतानों के रूप में की गई। चुगला का प्रतीक संभवतः पक्षियों के शिकारियों के लिए है। यह अकारण नहीं कि स्त्रियां तालाबों से मिट्टी लेकर सामा चकेवा पक्षी बनाने के बाद उन्हें पारंपरिक तरीके से सजाती भी हैं और उनके स्वागत में गीत भी गाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा को इस पक्षी जोड़े की बिदाई और चुगला रुपी शिकारी की मूंछे जलाने के साथ इस त्यौहार का अंत इस उम्मीद के साथ किया जाता है कि मेहमान पक्षियों को यहां के लोगों से कोई शिकायत नहीं होगी और अगले वर्ष वे फिर लौटकर यहां के मैदानों, झीलों और ताल-तलैया को अपने मासूम कलरव से एक बार फिर भर देंगे। मिथिला के तालाबों और सरोवरों में सर्दी के आरम्भ के साथ प्रवासी पक्षी अब भी दिख जाते हैं, लेकिन बढ़ते प्रदूषण और शोर की वज़ह से उनकी तादाद में निरंतर कमी आ रही है।

जीवन के हर क्षेत्र में आधुनिकता के प्रवेश का असर हमारी समृद्ध सांस्कृतिक और लोक परम्पराओं पर पड़ा है। सामा-चकेवा भी इसका अपवाद नहीं है। मिथिला संस्कृति का यह प्रतीक पर्व अब लोक से सिमट कर कुछ ही घरों तक यह सीमित रह गया है। जहां है, वहां भी इसकी रंगत फीकी हुई है। इसके आयोजन में उत्साह नहीं दीखता। शहरों में रहने वाले एकल परिवारों से तो यह लगभग लुप्त ही हो गया है, गांवों में भी इक्का-दुक्का दरवाजों पर ही दो-चार स्त्रियां इसे मनाती और गाती दिख जाती हैं। गांवों से पुरानी पीढ़ी के जाने के साथ शायद यह दुर्लभ दृश्य दिखना भी बंद हो जाय। अपनी जड़ों से कटे लोगों के बीच और निरंतर भागदौड़ से हांफते इस जटिल समय में जब कोई मानवीय मूल्य सुरक्षित नहीं है तो लोक आस्थाओं की मासूमियत भी भला कैसे बची रह सकती है ? मिथिला की आने वाली पीढियां अब किताबों से ही जान पाएगी कि उनकी संस्कृति में में कभी भाई-बहन के रिश्तों और पक्षियों के साथ एकात्मकता के ऐसे भोले-भाले उत्सव भी मनाए जाते थे।
प्रस्तुतकर्ता
Dhrub gupt

मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

।।।।ओढ़ के तिरंगा क्यों पापा आये है ।।।।।।

ओढ़ के तिरंगा क्यों पापा आये है?

माँ मेरा मन बात ये समझ ना पाये है,

ओढ़ के तिरंगे को क्यूँ पापा आये है।

पहले पापा मुन्ना मुन्ना कहते आते थे,

टॉफियाँ खिलोने साथ में भी लाते थे।

गोदी में उठा के खूब खिलखिलाते थे,

हाथ फेर सर पे प्यार भी जताते थे।

पर ना जाने आज क्यूँ वो चुप हो गए,

लगता है की खूब गहरी नींद सो गए।

नींद से पापा उठो मुन्ना बुलाये है,

ओढ़ के तिरंगे को क्यूँ पापा आये है।

फौजी अंकलों की भीड़ घर क्यूँ आई है,

पापा का सामान साथ में क्यूँ लाई है।

साथ में क्यूँ लाई है वो मेडलों के हार ,

आंख में आंसू क्यूँ सबके आते बार बार।

चाचा मामा दादा दादी चीखते है क्यूँ,

माँ मेरी बता वो सर को पीटते है क्यूँ।

गाँव क्यूँ शहीद पापा को बताये है,

ओढ़ के तिरंगे को क्यूँ पापा आये है।

माँ तू क्यों है इतना रोती ये बता मुझे,

होश क्यूँ हर पल है खोती ये बता मुझे।

माथे का सिन्दूर क्यूँ है दादी पोछती,

लाल चूड़ी हाथ में क्यूँ बुआ तोडती।

काले मोतियों की माला क्यूँ उतारी है,

क्या तुझे माँ हो गया समझना भारी है।

माँ तेरा ये रूप मुझे ना सुहाये है,

ओढ़ के तिरंगे को क्यूँ पापा आये है।

पापा कहाँ है जा रहे अब ये बताओ माँ,

चुपचाप से आंसू बहा के यूँ सताओ ना।

क्यूँ उनको सब उठा रहे हाथो को बांधकर,

जय हिन्द बोलते है क्यूँ कन्धों पे लादकर।

दादी खड़ी है क्यूँ भला आँचल को भींचकर,

आंसू क्यूँ बहे जा रहे है आँख मींचकर।

पापा की राह में क्यूँ फूल ये सजाये है,

ओढ़ के तिरंगे को क्यूँ पापा आये है।

क्यूँ लकड़ियों के बीच में पापा लिटाये है,

सब कह रहे है लेने उनको राम आये है।

पापा ये दादा कह रहे तुमको जलाऊँ मैं,

बोलो भला इस आग को कैसे लगाऊं मैं।

इस आग में समा के साथ छोड़ जाओगे,

आँखों में आंसू होंगे बहुत याद आओगे।

अब आया समझ माँ ने क्यूँ आँसू बहाये थे,

ओढ़ के तिरंगा पापा घर क्यूँ आये थे ।

Copied.....

बहुत कम लोगों को हे गौस्वामी तुलसीदास कि हनुमान चालीसा के बारे में ये जानकारी


ऐसा माना जाता है कि कलयुग में हनुमान जी सबसे जल्दी प्रसन्न हो जाने वाले भगवान हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने  हनुमान जी की स्तुति में कई रचनाएँ रची जिनमें हनुमान बाहुक, हनुमानाष्टक और हनुमान चालीसा प्रमुख हैं। हनुमान चालीसा की रचना के पीछे एक बहुत जी रोचक कहानी है जिसकी जानकारी शायद ही किसी को हो। आइये जानते हैं हनुमान चालीसा की रचना की कहानी :- भगवान को अगर किसी युग में आसानी से प्राप्त किया जा सकता है तो वह युग है कलियुग। इस कथन को सत्य करता एक दोहा रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है :-कलियुग केवल नाम अधारा ,सुमिर सुमिर  नर उतरहि  पारा।
जिसका अर्थ है की कलयुग में मोक्ष प्राप्त करने का एक ही लक्ष्य है वो है भगवान का नाम लेना। तुलसीदास जी ने अपने पूरे जीवन में कोई भी ऐसी बात नहीं लिखी जो गलत हो। उन्होंने अध्यात्म जगत को बहुत सुन्दर रचनाएँ दी हैं।
•गोश्वामी तुलसीदास और अकबर-
ये बात उस समय की है जब भारत पर मुग़ल सम्राट अकबर का राज्य था। सुबह का समय था एक महिला ने पूजा से लौटते हुए तुलसीदास जी के पैर छुए। तुलसीदास जी ने नियमानुसार उसे सौभाग्यशाली होने का आशीर्वाद दिया। आशीर्वाद मिलते ही वो महिला फूट-फूट कर रोनेलगी और रोते हुए उसने बताया कि अभी-अभी उसके पति की मृत्यु हो गई है।इस बात का पता चलने पर भी तुलसीदास जी जरा भी विचलित न हुए और वे अपने आशीर्वाद को लेकर पूरी तरहसे आश्वस्त थे। क्योंकि उन्हें इस बात का ज्ञान भली भाँति था कि भगवान राम बिगड़ी बात संभाल लेंगे और उनका आशीर्वाद खाली नहीं जाएगा। उन्होंने उस औरत सहित सभी को राम नाम का जाप करने को कहा। वहां उपस्थित सभी लोगों ने ऐसा ही किया और वह मरा हुआ व्यक्ति राम नाम के जाप आरंभ होते ही जीवित हो उठा।यह बात पूरे राज्य में जंगल की आग की तरह फैल गयी। जब यह बात बादशाह अकबर के कानों तक पहुंची तो उसने अपने महल में तुलसीदास को बुलाया और भरी सभा में उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा कि कोई चमत्कार दिखाएँ। ये सब सुन कर तुलसीदास जी ने अकबर से बिना डरे उसे बताया की वो कोई चमत्कारी बाबा नहीं हैं, सिर्फ श्री राम जी के भक्त हैं।अकबर इतना सुनते ही क्रोध में आ गया और उसने उसी समय सिपाहियों से कह कर तुलसीदास जी को कारागार में डलवा दिया। तुलसीदास जी ने तनिक भी प्रतिक्रिया नहीं दी और राम का नाम जपते हुए कारागार में चले गए। उन्होंने कारागार में भी अपनीआस्था बनाए रखी और वहां रह कर ही हनुमान चालीसा की रचना की और लगातार 40 दिन तक उसका निरंतर पाठ किया, चालीसवें दिन एक चमत्कार हुआ। हजारों बंदरों ने एक साथ अकबर के राज्य पर हमला बोल दिया। अचानक हुए इस हमले से सब अचंभित हो गए। अकबर एक सूझवान बादशाह था इसलिए इसका कारण समझते देर न लगी।  उसे भक्ति की महिमा समझ में आ गई। उसने उसी क्षण तुलसीदास जी से क्षमा मांग कर कारागार से मुक्त किया और आदर सहित उन्हें विदा किया। इतना ही नहीं अकबर ने उस दिन के बाद तुलसीदास जी से जीवन भर मित्रता निभाई।इस तरह तुलसीदास जी ने एक व्यक्ति को कठिनाई की घड़ी से निकलने के लिए हनुमान चालीसा के रूप में एक ऐसा रास्ता दिया है। जिस पर चल कर हम किसी भी मंजिल को प्राप्त कर सकते हैं।इस तरह हमें भी भगवान में अपनी आस्था को बरक़रार रखना चाहिए। ये दुनिया एक उम्मीद पर टिकी है। अगर विश्वास ही न हो तो हम दुनिया का कोई भी काम नहीं कर सकते।
🙏💐 जय श्री राम जय हनुमान  🙏💐