"मेहा-ऊजली : सोरठों में व्यक्त अव्यक्त प्रेम गाथा"
सैणल-बीझा की तरह राजस्थान गुजरात की एक अल्पप्रचलित लोककथा है,
मेहा-ऊजली की.
देस वही, एक की जाति वही और दोनों की नियति भी कुछ-कुछ वही सी.
पुराने जमाने में कोई रियासत थी,
हालामण, जिसकी राजधानी थी-
धूमली नगरी.
यह हालामण संभवतः पोरबंदर के पास था.
इस नगरी के राजा थे-भानु जेठवा.
उनका एक पुत्र था,
नाम था- मेहा जेठवा.
नाम के अनुरूप वह मेघ सा गंभीर और उदार था,
फिर परंपरागत उपनाम की तरह वह रूप-गुण में भी ज्येष्ठ और वरिष्ठ ठहरता था.
दूर पांचाल देश के पर्वतीय प्रदेश में कोई चारण रहता था,
नाम था- अमरा.
उसकी एक सुंदर युवा कन्या थी-
ऊजली.
जैसा उज्ज्वल नाम, वैसा ही उज्ज्वल रूप, शील, गुण.
संयोग ने आगे उसके लिए कुछ अलग सोच रखा था,
तभी वह तत्समय अल्पायु में विवाह की संस्कृति में भी
बीस वर्ष की आयु तक कुमारी ही थी.
क्या जाने वर्तमान की निर्धनता ने ही परिणय में बाधा डाली थी,
या फिर भविष्य की घटने वाली नियति ने.
दुर्योगवश एक बार पांचाल में दुर्भिक्ष पड़ा और
अमरा को मेहा के राज्य के पास हालार प्रांत में शरण लेनी पड़ी.
यह हालार संभवतः द्वारका के पास था.
राजकुमार मेहा कभी आखेट खेलते हुए उसी गाँव के पास पहुँच गया.
मान्यता है कि किसी यति ने किसी कृष्णमृग के शृंग में कुछ ऐसा तिलिस्मी टोटका या कागज बाँध दिया था कि
जहाँ मृग जाता, वहाँ वर्षा न होती.
मेहा ने वह जंतर जैसे ही मुक्त किया,
वर्षा प्रारम्भ हो गई.
राजकुमार राजधानी लौट रहा था,
पर रात हो चुकी थी.
रास्ता भटक कर वह थक चुका था,
या फिर कहीं आहत भी हो चुका था।
पौष माह था,
राजकुमार भी ठंढ से घोड़े पर बैठे-बैठे बेहोश हो गया.
जाने किस संयोग से घोड़ा स्वयं ही राजकुमार को
अमरा-ऊजली के द्वार पर ले आया.
कहते हैं,
घर में जलते दीप को देख चला आया.
प्रेम अपनी लौ कहाँ कैसे जला दिखला लेता है।
घोड़े की हिनहिनाहट और टाप सुनकर पिता-पुत्री ने द्वार खोला,
रात भर सेवा शुश्रूषा, आवश्यक परिचर्या की.
प्रात: जब राजकुमार जगा,
तो सब जानकर विस्मित भी हुआ, अभिभूत भी, अनुगृहीत भी.
उसके भावों के साथ ऊजली की भी वही दशा हो गई.
ऊजली मेहा पर मुग्ध हो गई,
पर मेहा ने जाना कि
प्रेम की वांछनीय परिणति नहीं है।
दोनों में स्तर का अंतर था,
पर उससे बड़ा अंतर था- जाति का.
और जाति में भी निहित संस्कृति का.
जब बात राजा को पता चली,
बोले-
“चारण हमारे लिए देवीपुत्र हैं, सम्मान्य.
राजपूत लड़के का चारण कन्या के साथ बहन का रिश्ता होता है.
तुम राजा के पुत्र हो सकते हो,
पर संस्कृति का उल्लंघन नहीं कर सकते.”
जीवन में प्रेम का आगमन ही चिरवियोग की दशा-दिशा लिए आये,
यह संभवतः सबसे दुर्भाग्य भरी नियति होती है,
क्योंकि वह प्रेम का उतना भी सुखद पल कभी नहीं पा पाती,
जो दु:खांत की त्रासद नियति लिए आते हैं।
बात पूरी नहीं हुई,
यह बात राजकुमार को सालती रही.
कई बार सोचा,
काश वह बस मेहा होता,
राजकुमार नहीं,
राजपुत्र नहीं,
तो शायद नियति कुछ और होती.
राज और समाज की मर्यादा का वह संरक्षक और ध्वजवाहक जो माना जाता था।
वह राज बदल भी ले, छोड़ भी दे,
तो जाति न बदली जा सकती थी, न ही छोड़ी.
मेहा ऊजली को रथ भेजकर बुलाने का वचन देकर धूमलीनगरी लौट गया था.
लंबी प्रतीक्षा के बाद भी जब मेहा ऊजली की सुध नहीं ले सका,
तो ऊजली ने उसे कई संदेशे भेजे.
कोई उत्तर न आने पर वह उससे मिलने धूमलीनगरी पहुँची,
प्रहरियों से अनुनय कर मिली,
फिर वहाँ जब वह सब तथ्यों से विदित हुई,
तब जोगन बन गई,
मीरा की सी,
पीड़ा के गीत गाती.
ऊजली चारण परिवार की सुकन्या थी,
कविहृदय, मधुर शब्द लिए.
वह कविता रचती, गीत गाती,
स्वयं ही सुनती, सुनाती, गुनगुनाती,
हृदय के उद्गार में हृदय का भार कम कर लेती.
पर मेहा तो क्षत्रिय था,
कलम नहीं, तलवार की भाषा में ही सोच सकता था।
पर हृदय तो सबका मानवीय ही होता है,
अपने कोमल पक्ष में जाति, धर्म से परे,
बस सहज संवेदनशील.
मेहा मन ही मन घुटता रहा,
ऊजली की स्थिति के लिए, मन:स्थिति के लिए.
कुछ दिनों बाद मेहा की असामयिक मृत्यु हो गई.
और ऊजली ?
उसने पूरा जीवन विरह में बिताया,
अपने व मेहा के मध्य रहे अव्यक्त प्रेम के सोरठे रचते हुए.
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कहानी का एक दु:खांत रूपांतर है कि
प्रेम के सोरठे रचती ऊजली जब मेहा की मृत्यु की खबर पाती है,
स्वयं भी किसी नदी या जलाशय में डूबकर जान दे देती है।
राजस्थान गुजरात की जनसामान्य में प्रसिद्ध हुई लोकगाथाओं में इस गाथा में गहराई के साथ सच्चाई का भी पुट है।
यहाँ यह गाथा "मेहा-ऊजली" की बजाय "जेठवा-ऊजली" के नाम से अधिक उद्धृत होती है,
क्योंकि ऊजली ने अपने सोरठों में मेहा को जेठवा कहकर ही संबोधित किया है.
कहानी करीब ११ वीं-१२ वीं शताब्दी की मानी जाती है।
कितनी सीमा तक ऐतिहासिक है, पता नहीं.
उजली के सोरठे आज भी बहुत कुछ विद्यमान हैं,
प्रेम की पीड़ा लिए.
इन सोरठों को राजस्थान में मरसिया और पीछोले भी कहा जाता है।
सोरठे ऐसे दोहे हैं, जिनमें तुकांत भाग को तोड़कर बीच में ला दिया जाता है। शायद टूटी प्रेम कहानियों के लिए ये बेहतर रूपक भी हों.
ऊजली ने अपने हर सोरठे के अंतिम पद के रूप में जेठवा शब्द ही रखा है.
ऊजली के रचे सोरठों में से एक दृष्टांत के रूप में-
जेठ घड़ी न जाय, (म्हारो) जमारो कोंकर जावसी.
(मों) बिलखतड़ी वीहाय, (तूं) जोगण करग्यो जेठवा.
अर्थात्
जिसके बिना एक घड़ी भी नहीं बीतती, उसी के बिना मेरा जीवन कैसे बीतेगा? मुझ बिलखती हुई को छोड़कर हे जेठवा तू मुझे सदा के लिए जोगन बना गया.
किसी भी लोक प्रेमगाथा में नायिका ने स्वयं अपनी वेदना साहित्यिक रूप में व्यक्त की हो,
यह शायद कहीं और नहीं है।
ऊजली चारण साहित्य की पहली कवयित्री भी हैं,
राजस्थान व गुजरात में इनका काव्य "जेठवा री बात" के नाम से प्रचलित है
राजस्थानी भाषा के महान लोककथाविद् विजयदान देथा ने जेठवा-ऊजली की कथा को स्त्री की अस्मिता और जातीय विमर्श की बहुत पुरानी कथाओं में से एक महत्वपूर्ण कथा के तौर पर चुना है.
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