सोमवार, 31 अगस्त 2015

भारत मेँ है ऐसे दो आदर्श मंदिर जहाँ दानपेटी नहीँ रखाजाता...,

युँ तो India_That_Is_भारत मे ऐसे हजारोँ मंदिर मस्जिद गिर्जा गुरुद्वारा है
जिन्हे आम इंसानोँ से ले कर के
सेलिब्रिटि तक सभी दान देते ।
परंतु
आप जानकर हैरान होगेँ भारत मे दो ऐसे मंदिर
भी है जहाँ न तो दानपेटी रखागया है न किसी के द्वारा दान दियेजाने पर मंदिर उसे ग्रहण करता है ।
1.कानपुर उत्तरप्रदेश

भ्रष्टतन्त्र_विनाशक_शनि_मंदिर
मेँ न्यायाधीश ,नेता ,सांसद ,विधायक ,अभिनेता ,विधायक व मंत्रीओँ के प्रवेश वर्जित है ।
मंदिर ट्रष्ट मानता है भ्रष्टाचार के लिये ये लोग ही उत्तरदायी है । यहाँ किसी भी तरह कि दान पर भी सख्त पावन्दी है ।
2. चिलकुर_बालाजी_मंदिर
Hydrabad मेँ भी दानधर्म पर रोक लगाया गया है ।
यह मंदिर हाईद्रावाद मेँ VisaTample के नाम से प्रसिद्ध है च्युँकि यहाँ स्तानीय लोगोँ मेँ ऐसी मान्यता है यदि कोई मंदिर की 108 बार प्रदक्षिणा करेगा उसे Visa मिलजाएगा । इस
मंदिर का खर्च , मंदिर परिसर से पार्किगं से उठाया जाता है जबकी यहाँ रोजाना दर्शन हेतु 70 हजार से 1 लाख भक्त आते है । हफ्ते मेँ यह मंदिर केवल 3 दिन खोला जाता है ....

Extrashot
भारत मेँ चार मुख्य मंदिर तिरुपति ,सिरिडि साईबाबा ,सिद्धिविनायक व काशी विश्वनाथ जी के मंदिरोँ मेँ
संचित धन से बर्तमान
भारतीय इंटरनेट युजर 21000 दिन लगातार अनलिमिटेड इंटरनेट चलासकते है ।

भारत के आदर्श गाँव

धरनई विहार का सर्वप्रथम हाईटेक विलेज है ।
30वर्ष पहले इस गाँव मेँ अंधेरा था ....परंतु सौरउर्जा के इस्तेमाल से इसगाँव मे खुशहाली आयी ।
आज यह गाँव समुचे भारत के लिये प्रेरणा बनकर उभरा है ।

गुजरात राज्य कि पुंसारी
गाँव मेँ हर घर मे WI-FI conection के साथ साथ A.c. आदि लगा हुआ देखा जा सकता है । इतना ही नही पुंसारी गाँव मे स्टिटलाईट व चौड़े पक्के सड़कोँ का भी निर्माण किया गया है ।

मेघालय कि मावलिनगं गाँव को 2003 मे एसिआ कि सबसे स्वच्छ गाँव का दर्जा मिला है । ये गाँव सिलं से 90 K.m. दूरी पर स्थित है ।

केरल कि पोथनिक्कड गाँव को भारत का सबसे शिक्षित गाँव का सम्मान प्राप्त है । 90 के दशक मे यहाँ के कुछ युवाओँ ने स्वेच्छा से लोगोँ को घर घर जाकर पढ़ाना शुरुकिया नतीजन आज यहाँ के लगभग 17563 लोग शाक्षर है ।

कर्णाटक कि कोकरेवेल्लुर गाँव अपने पक्षी प्रेम के लिये जानाजाता है । यह गाँव विलुप्त पक्षीओँ का स्वर्ग है यहाँ पक्षीओँ का असपताल भी खोलागया है ।

हरियाणा कि छापर गाँव के लोग कन्या जन्म होते ही मिठाई बाँटने मेँ लगजाते है । इस गाँव की सरपंच भी महिला है । यहाँ कन्याओँ के जन्म पर उत्सव मनाया जाता है ।

महाराष्ट्र कि हिवारेवजार करोड़पतिओँ का गाँव है ।
यहाँ एक नही दो नही 80 करोड़पति रहते है । इस गाँव कि तरक्की का श्रेय जाता हे पोपट राव नामक व्यापारी को ।
उन्होने गाँव का विकाश किया साथ साथ लोगोँ को भी अपने व्यवसाय मेँ सामिल किया ।

महाराष्ट्र कि एक और गाँव
शनि सिंगनापुर भारत का सबसे सुरक्षित गाँव मे से एक है । इस गाँव कि खासियत यह हे कि यहाँ के घरोँ मेँ दरवाजे नहीँ होते । कहते है चोर इसे शनिक्षेत्र जानकर यहाँ चोरी नहीँ करते ।

ओड़िशा मेँ रघुराजपुर गाँव को साल 2000 मेँ हेरिटेज विलेज का सम्मान मिला था ।
यह गाँव 5वीँ सदी से हस्तकला खासकर पैटिंग के लिये प्रसिद्ध रहा है ।
यहाँ प्रसिद्ध ओड़िशी नृत्यगुरु केलुचरण महापात्राजी का जन्म हुआ था ।


बुधवार, 27 मई 2015

कामाक्षानगर कभी मढ़ी के नाम से जानाजाता था....

कामाक्षानगर ओड़िशा राज्य कि ढ़ेकानाल जिल्ला का एक सहर है ।
इसे अंग्रेजीराज के समय ‪#‎ मढ़ी‬के नामसे जाना जाता था ,19वीँ सदी के मध्यभाग मेँ यहाँ असम राज्य कि अधिष्ठात्री देवी कामाक्षी कि मंदिर निर्माण करते हुए सिँहदेउ राजपरिवारने इस प्रान्त का नाम मढ़ी से कामाक्षानगर करदिया था ।
स्वतंत्रता संग्राम के समय मढ़ी सहर स्वतंत्रता संग्रामीओँ का गढ़ बना था । यहाँ लोगोँने राजा व अंग्रेजीराज के खिलाफ परेशान हो 1940तक हतियार उठालिया था इसे ओड़िशा इतिहास मेँ ‪#‎ प्रजामेली‬के नाम से जानाजाता है !!
कामाक्षानगर के अलावा तालचेर कटक आदि क्षेत्रोँ मेँ प्रजामेली काफी उग्र रुप बना था ।
कामाक्षानगर मेँ हो रहे इस जन आंदोलन दमन करने के लिये अंग्रेजोँ ने ब्राह्मणी नदी पार करते वक्त 12 साल की खंडायत बच्चे ‪#‎ बाजी_राऊत‬को मार दिया बाद मेँ उसके वीरता निडरता कि किस्से गाँव गाँव मेँ मशहुर हुए !!! ओड़िआ लेखक कविओँ के लेख कविता मेँ बाजी राऊत आज भी जिँदा है । ढ़ेकानाल सहर मेँ बाजी राऊत कि याद मेँ एक मिनार का निर्माण किया गया और उस चौक को बाजी चौक नामित किया गया है ।
1980 तक कामाक्षानगर मेँ एक नग्न आदिवासी जाति पायेजाते थे परंतु वक्त के साथ साथ आज वहाँ के प्रायः सभी लोग सभ्य मनचुके है ।
कामाक्षानगर सहर राष्ट्रिय राजपथ नं 200 द्वारा तालचेर व राष्ट्रिय राजपथ 221 द्वारा ढ़ेकानाल से जुड़ा है । ढ़ेकानाल से इसकी दूरी 21 किलोमिटर हे । यहाँ की मुख्य त्यौहारोँ मेँ काली व लक्ष्मी पूजा जिल्ला भर मेँ प्रसिद्ध है ।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

ओड़िआओँ शादिवाला अनोखा रस्म Handi dhuduka

आज से पाँचदिन पूर्व हमारे एक रिस्तेदार का विवाह संपन्न हुआ था । हमारे यहाँ विवाह पूर्व और बाद कई रस्मेँ होते है और ओड़िशा की संस्कृति एक तरह से उत्तरभारतीय दक्षिणभारतीय संस्कृति की समन्वय हि है । फिर भी कुछ विशेषताएँ जरुर देखने को मिलता है ।
==> ऐसा ही एक रस्म शादी के 4थे दिन किया जाता है जिसे ओड़िआ मेँ
‪#‎ HANDI_DHUDUKA‬
कहाजाता है ।
यह रस्म बिलकुल आसान है
शादी के ठिक 4थे दिन रात को
वर के घर मेँ वनाये गये वेदी पर इष्टदेव कि पूजार्चना के वाद घर मेँ रखेगये पुराने हाँडी (मिट्टी से बना बर्तन) और राख फेँक कर देवर-भाबी ,जीजा-जीजी तथा अन्य रिस्तेदार जिनसे मजाक मस्ती कियाजाता हो आपस मेँ यह खेल खेलते है ।
इस खेल मेँ अकसर लोग दुसरोँ के घर मेँ राख से बचने के लिये छुपते है ......खेल खत्म होने के बाद घर मेँ बनायेगये खास पकवान खा कर इस रस्म को आखरी अंजाम दिया जाता है ।

नहरु और उनके सिरफिरे नेता हीँ जिम्मेदार थे भारत चीन युद्ध के लिये

नेहरू चीन से दोस्ती के लिए बहुत ज्यादा उत्सुक थे । वे चीन को खुश करने के लिए
कई तरह के उपाय कर रहे थे । नेहरू ने 1953 में अमेरिका की उस पेशकश को ठुकरा
दिया था, जिसमें भारत से सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के तौर पर शामिल होने
को कहा गया था । इसकी जगह नेहरू ने चीन को सुरक्षा परिषद में शामिल करने की
सलाह दे डाली थी । अगर नेहरू ने उस पेशकश को स्वीकार कर लिया होता तो कई दशकों
पहले भारत सामरिक तौर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहद मजबूत देश के तौर पर उभर
चुका होता । आज भारत को सुरक्षा परिसद मेँ स्थायी सदस्यता के लिये कभी अमेरिका तो कभी G समूह राष्ट्र तथा युरोपियन राष्ट्रोँ को मनवाना पड़रहा है और यह अत्यन्त दूर्भाग्यपूर्ण है । हालांकि
नेहरू चीन की शातिराना चालों को पढ़ने में नाकाम रहे । उनके ज्यादातर मंत्री अयोग्य थे और इस बात को बिके मेनन जैसे रक्षामंत्री के भारतीय शस्त्रागारोँ को बंदकरने ,भारत चीन सीमा सेना वापस लाने जैसी आदेश देने से प्रमाणित होता है । चीन के साथ विवादों को
सुलझाने के लिए भले नेहरुने 'पंचशील' समझौते के तहत तिब्बत पर चीन के हक को
मंजूरी भी दी थी पर नेहरू का चीन पर भरोसा भारत पर बहुत भारी पड़ा । 1962
में चीन ने भारत पर हमला बोल दिया । आज़ादी के बाद भारत आज तक सिर्फ एक लड़ाई
हारा है । यह वही जंग थी, जिसमें भारत को नीचा देखना पड़ा। नेहरू का हिंदी चीनी
भाई-भाई का नारा किसी काम न आया और चीन के साथ जंग में बड़ी संख्या में भारत
ने अपने वीर सपूत खोए । कितने हि माताओँ बहनोँ ने नापाप्रदेश मेँ अपना इज्जत गबाया । आखिर मेँ शेषभारत के नारीओँ ने जब देखा भारत हार रहा है ,उन्होने अपने अभूषणोँ को सरकार को दान दिया ताकी उस सोने के बदोलौत भार गोलावारुद खरिद सके । भारत के पलटवार से चीन को समझ आया कि भारतीय झुकनेवाले नहीँ है वो आखरी दमतक लढ़ेगेँ । तब अंतराष्ट्रिय दवाब के आगे झुककर चीन नेँ युद्ध खत्म कि घोषणा यह करते हुए कि की तिबत्त और बाकी जीतेगये हिस्से पर अब उसका कब्जा है और भारत के इस कमजोर प्रधानमंत्री ने वजाय लढ़ने के इसे स्विकार कर लिया तब जब हमारे सैनिक जीत रहे थे । 1954 से चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने
तिब्बत में अपने विस्तार का जो सिलसिला शुरू किया, वह आज भी जारी है । दुनिया की छत कहे जाने वाले तिब्बत में चीन के खिलाफ आंदोलन आज भी चल रहा है।
तिब्बत में चीन के पांव पसारने का नतीजा यह हुआ है कि आज उसके हौसले बुलंद हैं
और वह न सिर्फ गाहे ब गाहे वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन कर रहा है बल्कि
अरुणाचल प्रदेश को तिब्बत का दक्षिणी हिस्सा बताता है। नेहरू की वह गलती आज
भारत पर बहुत भारी पड़ रही है और भारत को चाहिये की वो चीन जैसे दोगले देशोँ को उन्ही के अंदाज मेँ जवाब देँ तब इनके अक्ल ठिकाने आयेगी ।

वंदेमातरम् पर मुस्लिम लीग नेँ किया था पहला आंतरिक हमला

वंकिम चंद्र चेटर्जी कि ऐतिहासिक नवलकथा आनन्दमठ से लिया गया प्रसिद्ध बंदे मातरम गीत भारतीयोँ के लिये केवल मात्र एक गीत नहीँ है अपितु मातृभुमि की प्रेम मेँ स्वयं को ओतप्रोत कर लेनेवाली शक्ति है । बंदे मातरम से प्रेरित होकर ओडिआओँ ने बंदे उत्कल जननी नामक गीत की रचना की और यह भी ओड़िशा राज्य मेँ काफी मशहुर हुआ था । परंतु व्रिटिस राज को वंदेमातरम शब्द से नफरत था और इसलिये 1905 मेँ पूर्व बंगाल के लेफ्टनेँट गवर्नर नेँ एक आदेश जाहिर करते हुए कहा था कि बंदे मातरम कोई उच्चारण न करे ऐसा करना अपराध है । परंतु प्रथम वक्त इस राष्ट्रगीत पर आँतरिक प्रहार 1923 मेँ कंग्रेस का काकीनाडा अधिवेशन मेँ हुआ । सुप्रसिद्ध गायक विष्णु दिगंवर पलुस्कर कंग्रेस के उद्घाटन अधिवेशन मेँ बंदे मातरम गीत गाने के लिये मंच पर जाने लगे तो उनको अधिवेशन अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अलीनेँ रोक कर कहा कि इस्लाम मेँ संगीत बर्जित है इसलिये वो यहाँ गीत गाने के लिये अनुमति नहीँ देगेँ । समग्र सभा स्तभ्ध हो गया पर पलुस्कर टस् से मस् न हुए ,मौलाना को उन्होने कडक शब्दोँ
मेँ कहा कि भारतीय जातीय कंग्रेस पर किसी संप्रदाय विशेष का जागिर नहीँ चलता । ये स्थान कोई मसजिद भी नहीँ है कि कोई मुझे इस गीत को गाने के लिये रोक सकता है और न ही आपके पास ऐसा अधिकार है कि आप मुझपर धौँस जमाये । गीत गाया गया और उसी दिन से पाकिस्तान का विजरोपण हो गया । ये मौलाना मोहम्मद अली खिलाफत आंदोलन के अग्रज नेता थे और मुस्लिम लीग बनानेवाली विचारधारा के जनक भी । इस घटना के बाद अग्रेँजोँ को मुस्लिम लीग को अपने तरफ करने का मौका मिलगया और लीग को आर्थिक सहायता करनेवाला सत्ता । अब कंग्रेस के लिये बंदे मातरम रास्ते का काँटा बनचुका था क्युँकि मुसलमानोँ को अपने साथ करना था । जो कंग्रेस अंग्रेजोँ के लाठी गोली से कत्लेआम से नहीँ डरी थी उसके पाँव लीग के सामने बंदेमातरम को लेकर डगमगाने लगी । आखिरकार कंग्रेस लीग के आगे झुकगया और मुसलमानोँ को राजी करने के लिये उसे "सारे जहाँ से अछा हिन्दोस्तान हमारा" राष्ट्रिय गीत बनाना पड़ा । पाकिस्तान के जनक महम्मद इकवाल नेँ यह गीत लिखा था । पाकिस्तान बनने पर इन्होने एक और गीत लिखा था "मुस्लिम है हम वतन है सारा जहाँ हमारा " । 1937 मेँ कंग्रेस प्रान्तिय विधानसभा चुनाव मेँ विजयी हुआ और परंपरा के अनुसार कामकाज कि शुरुवात वंदेमातरम् कि जयनाद के साथ शुरु हुआ । अब लीग के सभ्योँ को यह बात खटक गई और उन्होने इसे मुद्दा बनाकर हंगामा पर उतर आये । लीगवाले कंग्रेस शासित राज्योँ को हिन्दुराज्य कहने लगे जैसे आज बिजेपी के साथ हो रहा है । लीग नेँ अपने कार्यकर्ताओँ के लिये फरमान जाहिर किया कि कोई भी सदस्य इस बंदेमातरम् गीत से कोई सबंध न रखे । अब कंग्रेस को डर सताने लगा जो अबतक कायम है कि अंग्रेज हिन्दु मुस्लिम एकता के बीना भारत को सत्ता न सौँपे तो ?
तो कंग्रेस ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिये बंदेमातरम् को राष्ट्रगान कि पदवी से हटाकर अन्य गीतोँ के श्रेशीओँ मेँ ला खड़ा किया और बंदेमातरम् कविता से केवल पहले चार पंक्तिओँ का गाया जाय लोगोँ से इसतरह कि अनुरोध किया गया । बर्तमान भारत मेँ कंग्रेस मुस्लिम लीग का रोल निभा रहा है और बिजेपी पराधीन भारत कि उस वेवश कंग्रेस कि तरह बर्ताप करने लगा है । समय आ गया है कि हम भारतीय हिन्दुओँ को अपने सभ्यता संसकृति को बचाने के लिये बड़े कदम उठाने होगेँ अरबी संस्कृति प्रेमीओँ को गर भारतीय संस्कृति सभ्यता से दिक्कतेँ आ रही है तो वे अरब चले जाय अथवा पाकिस्तान या बंगलादेश । नागफनी का वर्षावन मेँ जीवन व्यतित करना आसान कहाँ है ???

भारत मेँ 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ था या सिपाही विद्रोह ?

29 मार्च 1857 को भारतीयोँ ने पहलीवार अंग्रेजोँ के खिलाफ विद्रोह किया और 1 मई तक चला था ।
मंगल पांडे ने बैरकपुर के परेड ग्राउंड में गोली चलाने से इनकार कर इसकी शुरवात की थी ।
29 मार्च को बैरकपुर में ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज अफसर पर पहली गोली मंगल पांडे ने चलाई और बाकी सिपाहियों को भी ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला बोलने को कहा । अंग्रेजी सेना ने मंगल पांडे को गिरफ्तार कर लिया और बाद में मुकदमा चलाकर फांसी दे दी । उस समय सेना में लाए गए नए एनफील्ड राइफल और कारतूस को लेकर सिपाही मंगल पांडे ने विरोध जताया था ।
माना जा रहा था कि उन कारतूसों को बनाने में गाय और सूअर की चर्म या वसा का इस्तेमाल किया गया था । ये दोनों ही चीजें हिंदू और मुसलमानों दोनों के लिए अपवित्र मानी जाती हैं । इस विरोध ने पूरे उत्तर भारत में विद्रोह की एक लहर चला दी थी । भारत में इसे आजादी की पहली लड़ाई कहा गया लेकिन ब्रिटिश शासन ने उसे सिपाही विद्रोह का नाम दिया ।
कोलकाता के बाहरी क्षेत्र के बैरकपुर में अंग्रेजी शासन ने 1765 में अपनी पहली छावनी बनाई थी । उसी बैरकपुर परेड ग्राउंड में 8 अप्रैल 1857 को मंगल पांडे को फांसी पर लटका दिया गया । उनके विद्रोह ने मेरठ से दिल्ली तक विरोध की लहर चला दी थी । आजादी का पहला संग्राम विफल रहा लेकिन इस विद्रोह का असर बहुत व्यापक रहा । सामूहिक नेतृत्व के अभाव के कारण विद्रोह को कुचला भी जा सका । इतिहासकार मानते हैं कि 1857 के विद्रोह ने ही आजादी की लड़ाई की मजबूत नींव रखी थी और अगर यह विद्रोह कुछ वर्ष पूर्व हुआ होता तो शायद अंग्रेज भारत मेँ टिक नहीँ पाते । 1857 तक संचार एबं परिवहन क्षेत्र मेँ काफी उन्नति हुई थी यही कारण है कि अंग्रेज विद्रोह कुचलने मेँ सफल हुए । साधारण जनतानेँ भी इस विद्रोह मेँ सिपाहीऔँ का साथ नहीँ दिया था उस समय भारतीय समाज या तो शोया हुआ था अथवा उसे यकिन न था की उन्हे अंग्रेजोँ से युँ मुक्ति मिलजायेगी । भले अंग्रेजोँ ने इसे सिपाही विद्रोह कहा पर
भारतीय बुद्धिजीवि आज भी इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मानते है । हालाँकि एक लम्बे समयकाल तक भारतीय स्कुलोँ के पाठ्यपुस्तकोँ मेँ इसे सिपाही विद्रोह के रुप मेँ ही पढ़ाया गया । एक तरह से कंग्रेस द्वारा इस सशस्त्र आदोँलन को गांधी की अंहिसा आंदोलन से कम महत्व देने के लिये हर संभव प्रयाश किया गया था ।